योग क्या है ? विचार करते हैं ।
पातंजल योग सूत्रों में बताया गया है कि एक ऐसी क्रिया जिसे करने से चित्त की चंचलता मिट जाती है उसे ही “योग” कहा जाता है।
“ योगश्चित्तवृतिनिरोधः”
{ पातंजलयोगसूत्र १ }
योग के आठ अंग कहे गए हैं –
यम,नियम,आसन,प्रणायाम,प्रत्याहार,धारणा,ध्यान और समाधि।
योग का पहला अंग ‘यम’ है जिसके पालन किये बिना कभी भी योग में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती।
वास्तव में ब्रह्मचर्य पालन करने को ही यम कहा जाता है क्योंकि जीवन ब्रह्मचर्य पूर्ण होना आवश्यक है।
‘भोगी’ कभी भी ‘योगी’नहीं बन सकता है ।
योग का दुसरा अंग है ‘नियम’ इसका अर्थ है कि हमें शास्त्र निर्दिष्ट कार्य ही करना चाहिए।
योग करने के लिए शरीर स्फूर्त रहे इसके लिए सुपाच्य,स्निग्ध भोजन करते हुए मितभोजी हो जाना आवश्यक है।
“आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः”
जिसका आहार {भोजन} शुद्ध नहीं होता है वह व्यक्ति कभी भी ‘योग’ नहीं कर सकता।
माँस खानेवाले,शराब पीनेवाले कभी भी ‘योगी’ नहीं बन सकते।
योग का तिसरा अंग है ‘आसन’ जिसे करने से शरीर का व्यायाम हो जाता है।
“ स्थिरसुखमासनम्” अर्थात् जिस क्रिया को करने से शरीर स्थिर हो।
मयुरासन, कुक्कुटासन, हलासन, शिरसासन,पद्मासन आदि ये प्रसिद्ध आसन है।
चौथा अंग है ‘प्राणायाम’ जिसे करने से आयु बढ़ जाती है तथा मूलाधार,स्वाधिष्ठान,मणिपुर,अनाहत,विशुद्ध,आज्ञाचक्रों में स्पन्दन होकर कुण्डलिनी पर प्रभाव पड़ता है।
पूर्व में भस्त्रिका का अभ्यास किया जाता है ।
गुदामार्ग को बार-बार संकुचित करते हुए श्वास को खींचना तथा रोककर धीरे धीरे छोड़ना प्राणायाम कहा जाता है।
नेति-धोती,जालन्धर बन्ध,उडयान् बन्ध का अभ्यास किसी योगी के संरक्षण में सिख लेना चाहिए।
पाँचवें अंग का नाम है ‘प्रत्याहार’ जिस क्रिया के द्वारा ‘मन’ इन्द्रियों को अनुशासित किया जाता है उसे ही प्रत्याहार कहा जाता है ।
“ स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकारे इन्द्रियाणां प्रत्याहारः”।
जब मन सहित सभी इन्द्रियाँ व्यवस्थित होकर भगवान् श्रीमन्नारायण के किसी भी अंग -प्रत्यंग में स्थित हो जाती है तो उसे ही ‘धारणा’ कहा जाता है।
सातवें अंग को ‘ध्यान’ कहा जाता है।
धारणा के सर्वोच्च अवस्था को ‘ध्यान’ कहा जाता है।
ध्यान की सर्वोच्च अवस्था ‘समाधि’ कही जाती है।
सविकल्प समाधि तथा निर्विकल्पक समाधि ये दो प्रकार की समाधि होती है।
सविकल्प समाधि अंग है जबकि निर्विकल्प समाधि अंगी है।
“ तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूरशून्यमिव समाधिः”।
शरीर एवं मन को स्वस्थ रखने के लिए योग के अंगों का आचरण करना चाहिए।
ज्ञातव्य है कि ‘योग‘ जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ देता है जबकि ‘भोग’ परमात्मा से जुड़े हुए जीवात्मा को भी तोड़ देता है।
श्रीभगवान् की कृपा का अवलंबन करते हुए ‘भोग’ से ‘योग’ की ओर बढ़ना सनातनधर्म की आज्ञा है।

संकलन- आचार्य धीरज द्विवेदी “याज्ञिक”
खखैचा प्रतापपुर प्रयागराज उत्तर प्रदेश
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